मैं’ सिर्फ एक शरीर तक सीमित नहीं

Spread the love
  • अतुल मलिकराम (लेखक एवं राजनीतिक रणनीतिकार)

सर्दियों की एक शांत-सी सुबह में, मुझे अपने विचारों के साथ कुछ सुखद पल खुद के साथ बिताने का सुअवसर मिला। चारों ओर कुहासा पसरा था, जैसे समय खुद किसी तपस्वी की तरह मौन साधे बैठा हो। मन उसी मौन में कहीं भीतर उतर गया था कि तभी एक प्रसंग की बेशकीमती स्मृति मेरे मन में दस्तक देती है, जो कभी मैंने अपने कॉलेज के दिनों में अपने एक प्रोफेसर से सुना था। यह प्रसंग रामकृष्ण परमहंस जी और विवेकानंद जी की अंतहीन गहराइयों से भरी हुई बातचीत का है, जो सिर्फ एक बीमारी की कथा नहीं, बल्कि त्याग, समर्पण और दिव्यता की जीवंत मिसाल है।
रामकृष्ण परमहंस, जिनके जीवन की हर साँस में माँ काली की भक्ति समाई हुई थी, जब गले के कैंसर जैसी गंभीर बीमारी से जूझ रहे थे, उस समय उनका शरीर धीरे-धीरे टूट रहा था, लेकिन मन इस हानि का मोहताज नहीं था, शायद इसलिए, क्योंकि वह तो हँसी के वात्सल्य में डूबा हुआ था। एक ओर गले से पानी भी नहीं उतरता, भोजन भी नहीं जाता, और दूसरी ओर हँसी उस पीड़ा को इस तरह ओढ़े रहती थी, जैसे कोई साधु बर्फ के बीच ध्यानस्थ बैठा हो, बिल्कुल निर्विकार एवं निर्लिप्त।
जब शिष्य विवेकानंद ने देखा कि गुरुदेव इस असहनीय पीड़ा में भी कुछ नहीं माँगते, तो उनके भीतर का शिष्यत्व बड़ा ही बेचैन हो उठता। कई सारे प्रश्न मन में हिंडोले खा उठते कि इतना सहज आखिर कैसे कोई रह सकता है। बड़ी ही विनम्रता से एक दिन उन्होंने अपने गुरु से आग्रह किया, “माँ से अपने लिए कुछ माँग लीजिए न! सिर्फ इतना कि आप पानी तो पी सकें। हमें बड़ा असह्य कष्ट होता है आपकी यह दशा देखकर।”
लेकिन, इसके विपरीत रामकृष्ण परमहंस मुस्कुरा दिए। वह मुस्कान वैसी ही थी, जैसी किसी संत की होती है, जहाँ शब्दों की जरूरत नहीं रहती, मौन में ही सारे उत्तर मिल जाया करते हैं। कुछ हद तक उनकी प्रतिक्रिया ऐसी थी, जैसे कोई पिता हो, जो अपने बालक की चिंता देखकर भी उसकी बात मान नहीं पाता। और फिर बोले, “अपने द्वारा किया गया जो भी काम है, उसका निपटारा कर लेना बहुत जरूरी है। जो हो रहा है, उसे हो जाने देना ही उचित है। उसमें कोई भी बाधा डालना उचित नहीं है, नहीं तो फिर से आना पड़ेगा।”
शब्द साधारण-से थे, लेकिन उनके अर्थ की गहराई समुद्र से भी अधिक। उन्होंने बताया, “जीवन में जो कुछ भी हमारे हिस्से आया है- सुख, दुःख, पीड़ा, वह किसी अन्य की देन नहीं, हमारी ही चुनी हुई राह है। और जब तक हम अपने कर्मों से पूर्ण रूप से निपट नहीं लेते, तब तक मुक्ति संभव नहीं।”
यह सुनकर नरेन्द्र कुछ पल शांत रहे, लेकिन मन पूरी तरह संतुष्ट नहीं हो सका। वे फिर बोले, “कम से कम इतना ही कह दीजिए कि भोजन कर सकें..”
गुरुदेव फिर मुस्कुराए, इस बार थोड़ी शरारत के साथ, जैसे कोई सूफी फकीर हो, जो जीवन के रहस्यों से खेलता है। उन्होंने कहा, “अच्छा ठीक है, आज माँ से कहूँगा।”
अगली सुबह, सूरज की पहली किरणों के साथ ही परमहंस की कुटिया में ठहाकों की आवाज़ गूँज उठी। वे ऐसे हँस रहे थे, जैसे कोई बच्चा कोई अद्भुत रहस्य पा गया हो। नरेंद्र पास आए, और उनके चेहरे पर आश्चर्य की रेखाएँ उभर आईं। “क्या हुआ, गुरुदेव?”, उन्होंने पूछा।
“आज तो बड़ा मज़ा आया रे नरेन्द्र!” रामकृष्ण ने कहा, “मैंने माँ से कहा कि मेरा गला ठीक कर दो, मेरे गले से पानी भी नीचे नहीं उतर रहा है, भोजन पा पाना तो बहुत दूर की बात है। माँ बोली, इसी गले से भोजन करने का ठेका ले रखा है क्या? दूसरों के गलों से भोजन करने में तुझे क्या तकलीफ है?”
वे फिर हँस पड़े और बोले, “तेरी बातों में आकर मुझे भी बुद्धू बनना पड़ा। अब जब तू खाएगा, समझना मैं तेरे गले से भोजन पा रहा हूँ।”
इस सरल कथन में जो गहराई छुपी थी, वह सिर्फ और सिर्फ एक महान आत्मा ही समझा सकती है। इसे सिर्फ ‘दार्शनिक उपदेश’ के नाम की जंजीर में जकड़ना ही काफी नहीं था, और न ही यह आत्मदया से उपजी कोई विवशता थी। यह तो स्वीकृति थी उस आत्मा की, जिसने अपने व्यक्तिगत अस्तित्व की सीमाओं की अमर जड़ें पूरी सृष्टि में फैला दी थी।
अब उनका ‘मैं’ सिर्फ एक शरीर तक सीमित नहीं था, क्योंकि अब वह हर उस गले में समा चुका था, जो भोजन करता है। वैद्य जी आए। उन्होंने परमहंस की हालत देखी और चौंकते हुए बोले, “आप हँस रहे हैं? जबकि आपकी हालत इतनी पीड़ादायक है कि इससे अधिक कष्ट शायद ही संभव है।”
परमहंस जी ने वैद्य जी को पूरी बात सुनाई और बोले, “मैं इस बात पर हँस रहा हूँ कि मेरी भी क्या बुद्धि थी.. यह विचार मुझे पहले क्यों नहीं आया कि सभी गले मेरे अपने ही हैं? तो फिर इस एक गले की क्या जिद करना है?”
कितना सहज, कितना विराट और कितना सुंदर उत्तर है। यह प्रसंग हर दर्द का मर्ज़ है। यह हमें सिखाता है कि हममें से अधिकतर लोग जब शरीर की मामूली पीड़ा भी झेलते हैं, अपने सिर पर शिकायतों का पुलिंदा ढोए चलते हैं, और थोड़ा-थोड़ा करके गिराते चले जाते हैं कभी ईश्वर पर, कभी किस्मत पर, तो कभी समाज पर। लेकिन, रामकृष्ण परमहंस ने अपनी देह की भीषण यातना को हँसी में बदल देते हैं।
यही तो है संतत्व की पराकाष्ठा। रामकृष्ण का जीवन कहता है कि संत वही है, जो अपने लिए कुछ नहीं रखता। जो अपने कष्टों से मुक्त होने के लिए प्रार्थना भी नहीं करता, बल्कि कहता है, “यदि ईश्वर की मर्ज़ी है, तो यह पीड़ा भी प्रसाद है।” खुद के लिए उनका कोई प्रयोजन नहीं होता, क्योंकि उनका ‘स्व’ यानि ‘मैं’ तो सृष्टि में घुल चुका होता है।
जब आत्मा विश्वात्मा से एकाकार हो जाती है, तो फिर माँगने की जरूरत ही नहीं रहती। फिर न कोई अपना होता है, न पराया, सभी गले अपने हो जाते हैं, सभी दुःख साझे हो जाते हैं। संतों की यही खास बात होती है कि वे हमें सिखाते हैं; माँगना बंद कर दो, और देना शुरू करो। और जिस दिन तुम सचमुच कुछ नहीं माँगते, तभी तुम्हें वह सब मिल जाता है, जिसकी कभी कल्पना भी नहीं की थी, क्योंकि जिनके पास कुछ नहीं होता, उनके पास सब कुछ होता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *